सेवा

वे सवेरे-सवेरे टहल कर लौटे तो कुटिया के बाहर एक
दीन-हीन व्यक्ति को पड़ा पाया| उसके
शरीर से मवाद बह रहा था| वह कुष्ठ रोग से
पीड़ित था|
उन महानुभाव ने उसे देखा| उस व्यक्ति ने
धीमी आवाज में हाथ जोड़ते हुए कहा -
"मैं आपके दरवाजे पर शांतिपूर्वक मरने आया हूं|"
रोगी की हालत से उनका हृदय द्रवित
हो उठा, पर उसे आश्रय कैसे दें! वे अकेले तो थे
नहीं और भी बहुत-से भाई-बहन साथ
में रहते थे|
क्षणभर मन में द्वंद्व रहा| अनंतर वे कुटिया में चले गए, पर
अंत अंतर्द्वंद्व ने संघर्ष का रूप धारण कर लिया| अंतर से
किसी ने कहा - 'तू अपने को सेवक कहता है!
इंसानियत का दावा करता है और उस दुखी बेबस
आदमी को ठुकराता है!'
बाहर से किसी ने जवाब दिया - "मेरे लिए तो कोई बात
नहीं है, पर दूसरे लोग ऐसे
रोगी को रखना पसंद नहीं करेंगे|"
'ठीक है, तब तू मानव-जाति की सेवा करने
का दंभ छोड़ दे|' अंतर की आवाज में
खीज थी|
संघर्ष और तीखा हुआ और अंत में निश्चय
किया कि व्यक्ति जो सही माने उसका पालन करे
दूसरों का राजी या नाराजगी की परवाह
न करे| जो आशा लेकर आया है जीवन के अंतिम
क्षण में शांति पाना चाहता है, उसे मायूम कैसे किया जा सकता है|
इस निश्चय के बाद बराबर
की कोठरी खाली कराई गई,
असाध्य रोगी को उसमें रखा गया|
इतना ही नहीं मानवता के उस
पुजारी ने अपने हाथ से रोगी के घाव धोए,
मवाद साफ किया और दवा लगाई|
रोगी बराबर वहां रहा और परम शांति के साथ
उसकी जीवन-लीला समाप्त
हुई|
वह महानुभाव थे बापू, जिनके लिए मानव सर्वोपरि था और
सेवा जिनके लिए जीवन का चरम लक्ष्य
थी| रोगी थे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान
परचुरे शास्त्री|

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