कुवें का मेंढक
एक कुंवे मे एक मेंढक रहता था। एक बार समुन्द्र का एक मेंढक
कुंवे मे आ पहुंचा तो कुंवे के मेंढक ने उसका हालचाल,
अता पता पूछा। जब उसे ज्ञांत हुआ कि वह मेंढक समुन्द्र मे
रहता हैं और समुन्द्र बहुत बड़ा होता हैं तो उसने अपने कुंवे
के पानी मे एक छोटा-सा चक्कर लगाकर उस समुन्द्र
के मेंढक से पूछा कि क्या समुन्द्र इतना बड़ा होता हैं?
कुंवे के मेंढक ने तो कभी समुन्द्र
देखा ही नहीं था। समुन्द्र के मेंढक ने
उसे बताया कि इससे भी बड़ा होता हैं।
कुंवे का मेंढक चक्कर बड़ा करता गया और अंत मे उसने कुंवे
की दीवार के सहारे-सहारे
आखिरी चक्कर लगाकर पूछा- “क्या इतना बड़ा हैं
तेरा समुन्द्र ?”
इस पर समुन्द्र के मेंढक ने कहा- “इससे भी बहुत
बड़ा?”
अब तो कुंवे के मेंढक को गुस्सा आ गया। कुंवे के अलावा उसने
बाहर
की दुनिया तो देखी ही नहीं थी।
उसने कह दिया- “जा तू झूठ बोलता हैं। कुंवे से बड़ा कुछ
होता ही नहीं हैं। समुन्द्र
भी कुछ नहीं होता।”
मेंढक वाली ये कथा यह ज्ञांत करती हैं
कि जितना अध्धयन होगा उतना अपने अज्ञान का आभास होगा।
आज जीवन मे पग-पग पर ह्मे ऐसे कुंवे के मेंढक
मिल जायेंगे, जो केवल यही मानकर बैठे हैं
कि जितना वे जानते हैं, उसी का नाम ज्ञान हैं, उसके
इधर-उधर और बाहर कुछ भी ज्ञान
नहीं हैं। लेकिन सत्य तो यह हैं कि सागर
कि भांति ज्ञान की भी कोई
सीमा नहीं हैं। अपने
ज्ञानी होने के अज्ञानमय भ्रम
को यदि तोड़ना हो तो अधिक से अधिक अध्धयन करना आवश्यक
हैं जिससे आभास होगा कि अभी तो बहुत कुछ
जानना और पढ़ना बाकी हैं।
आपके एक ब्लॉग की सेटिंग कर दी है दूसरे की 10 जनवरी के बाद अनुराग आएगा तब कर देंगे क्योंकि आप उस पर दूसरी टेम्पलेट चाहते हैं उसमें HTML का लम्बा और कठिन काम है।
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