Mehnat ki kmai

खुशहालपुर में नारायण नाम का एक अमीर
साहूकार रहता था। उसका एक बेटा और एक
बेटी थी। लडक़ी की शादी हुए तीन साल
हो गये थे और वह अपने ससुराल में खुश थी।
लडक़ा राजू वैसे तो बुद्धू नहीं था लेकिन गलत
संगत में बिगड सा गया था। अपने पिता के
पास
बहुत पैसा है यह उसे घमंड हो गया था।
दिनभर अपने आवारा दोस्तों के साथ
घूमना फिरना ही उसे अच्छा लगता था। जैसे-
जैसे वह बडा हुआ पैसे खर्च करने की आदत
बढती गयी और वह अपने दोस्तों के कहनेपर
पानी की तरह पैसा बहाने लगा।
मेहनत की कमाई अपना बेटा ऐसे गंवा रहा है
यह देख नारायण को चिंता होने लगी।
उसकी इच्छा थी कि राजू बेटा बडा हो कर
सब कारोबार संभाल ले और वह
अपनी पत्नी के साथ तीर्थयात्रा पर निकल
जाये। अपने बेटे को समझ आने की आस लगाये
बैठा नारायण बुढापे की तरफ बढ रहा था।
फिर उसने गांव के ही एक विद्वान गृहस्थ थे
सलाह लेने की सोची।
दोनों ने मिलकर सलाह मशवरा किया। खूब
बातें हुई।
दूसरे दिन नारायण ने राजू को बुलाया और
कहा ''बेटा राजू घर से बहार जा कर शाम
होने तक कुछ भी कमाई करके लाओगे तभी रात
का खाना मिलेगा। राजू डर गया और रोने
लग गया। उसे रोता देख मां की ममता आडे आ
गयी।
मां ने राजू को एक रूपया निकालकर दिया।
शाम को जब नारायण ने राजू से
पूछा तो उसने वह एक रूपया दिखाया।
पिता ने वह रूपया राजू को कुएं में फेंकने के
लिये कहा। राजू ने बिना हिचकिचाहट वह
रूपया फेंक दिया। अब नारायण
को अपनी पत्नी पर शक हुआ। उसने
पत्नी को उसके भाई के यहां भेज दिया।
दूसरे दिन राजू की वैसे
ही परीक्षा ली गयी। इस बार राजू मायके
आयी हुई अपनी बहन के सामने गिडग़िडाया।
तरस खा कर उसकी बहनने भी उसे 5 रूपये
दिये। उस दिन भी पिता के कहनेपर राजू ने
पैसे कुएँ में फेंक दिये। फिरसे नारायण
को लगा कि दाल में कुछ काला है। उसने
अपनी बेटी को ससुराल वापस भेज दिया।
अब तीसरी बार राजू का इम्तहान
होना था। अब उसे साथ देनेवालों में से
ना मां थी ना बहन थी और ना ही कोई
दोस्त सामने आया। राजू णणथ सारा दिन
सोचता रहा। मेहनत करके पैसे कमाने
के अलावा कोई हल नजर नहीं आ रहा था।
भूख भी लगने लगी थी। रात
का खाना बिना कमाई के मिलने
वाला था नहीं। राजू काम ढूंढने निकल पडा।
पीठ पर बोझा उठाकर दो घंटे मेहनत करनेके
बाद उसे 1 रूपया नसीब हुआ। भूख के मारे वह
ज्यादा काम भी नहीं कर पा रहा था।
शरीर भी थक कर जवाब देने लग गया था।
सो पसीने से
भीगा हुआ राजू 1 रूपया लेकर घर पहूँचा।
उसे लग रहा था पिता को अपनी हालत पर
तरस आयेगा। लेकिन नारायण ने उसे सबसे
पहले कमाई के बारे में पूछा। राजू ने
अपना एक रूपया जेब से निकाला। पहले के
भांति नारायण ने एक रूपया कूएँ में फेंकने के
लिये कहा। अब राजू
छटपटाया। उसने अपने पिता से कहा ''आज
मेरा कितना पसीना बहा है एक
रूपया कमाने के लिये। इसे मैं नहीं फेंक सकता।
जैसे ही ये शब्द उसके मुह से निकले, उसे
अपनी गलती का अहसास
हो गया। नारायण खुश हुआ उसे कुछ कहने
की जरूरत नहीं पडी। अब राजू
को पैंसों की कीमत पता चल गयी है
ऐसा सोचकर नारायण
भी तीर्थयात्रा की तैय्यारी में जुट गया।"
तो बच्चों मेहनत का मोल ऐसे होता हैं।
पसीने की कीमत पसीना बहाकर
ही पता चलती हैं। मेहनत पसीने से
की गयी कमाई ही खरी कमाई है।

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