बड़े काम के मोह में छोटे की अवहेलना न हो

वह अत्यंकत वृद्ध थी। फिर भी इस वृद्धावस्थाव
में भी उसे बोझा ढोने का काम करना पड़ता था।
पेट पालने के लिए शायद उसके पास और कोई
रास्ताप भी न था। इस समय वह सड़क के किनारे
इस आशा में खड़ी थी कि कोई उसके भारी गट्ठर
को उठाने में उसकी सहायता कर दे। तभी एक
व्याक्ति उसी सड़क से उसके पास से होकर
गुजरा। वृद्धा मजदूरनी ने उससे
सहायता की याचना की।
उस व्यकक्तिर के चेहरे पर कुछ अजीब से भाव उभरे
और उसने नाक–भौं सिकोड़ते हुए कहा–
ʺअभी मुझे समय नहीं है, मुझे बड़ा काम करना है,
बड़ा बनना है।ʺ और वह आगे बढ़ गया।
थोड़ी दूर आगे एक वृद्ध गाड़ीवान् ने उसके
हृष्टह–पुष्टस शरीर को देखते हुए कीचड़ में
फँसी अपनी गाड़ी का पहिया निकलवाने के लिए
उससे अनुनय की।
वह झल्ला कर बोला– ʺवाह जी वाहǃ बड़े
बेवकूफ हो तुमǃ मैं भला अपने
कपड़ों को क्यों खराब करूँॽ मुझे बड़ा काम
करना है, बड़ा आदमी बनना है।ʺ
थोड़ा आगे बढ़ने पर उसे एक अंधी बुढि़या दीख
पड़ी। उसकी आहट पाकर उसने उस व्यफक्तिर से
बड़े ही दयनीय भाव से कहा– ʺअरे भाई क्याक
तुम मुझे बायीं ओर वाली झोपड़ी तक पहुँचाने में
मेरी मदद करोगेॽ तुम्हायरा बड़ा अहसान
होगा।ʺ
वह व्येक्तिर तिलमिलाकर बोला–
ʺतेरा दिमाग खराब हो गया है क्या ॽ तुझे
नहीं मालूम मुझे बड़ा काम करने जाना है,
बड़ा आदमी बनना है। मुझे जरा जल्दीि है।ʺ
इस तरह चलते–चलते वह महर्षि रमण के आश्रम में
पहुँच गया। महर्षि अपनी ध्याहनसाधना में
निमग्न होने ही जा रहे थे कि वह शीघ्रता से
उनके सम्मु ख जा पहुँचा।
उनको अभिवादन कर वह वहीं नके पास बैठ
गया और बोला– ʺमैं आ गया हूँ महर्षि, बतायें,
मेंरे लिए क्याे सेवा हैॽ मैं आपके लिए क्याव करूँॽʺ
उसके इन स्व रों में सका अहं ध्वँनित
हो रहा था।
महर्षि ने उसकी ओर देखा और हलके–से मुस्कराए।
महर्षि की इस मुस्कानन में उनके रहस्यहमय
अर्न्तेज्ञान की झलक थी। इस मुस्कारन के साथ
ही उन्हों ने पूछा– ʺहाँ तो तुम ही वह
व्याक्तिा हो, जिसने कल के सत्संजग में बड़ा काम
करने के मेरे आह्वान पर अपनी स्वीिकृति प्रकट
की थी।ʺ
ʺजी हाँ भगवन्ǃʺ उसने कहा।
ʺअच्छीँ बात है, थोड़ी देर बैठो। मुझे एक
व्यहक्तिह की और प्रतीक्षा है। उसने
भी सत्संसग के विसर्जन के बाद मुझसे
ऐसा ही कहा था। लेकिन अब तक तो उसे आ
जाना चाहिएǃ यही तो समय दिया था उसनेǃʺ
महर्षि के चेहरे पर प्रतीक्षा का भाव झलक
उठा।
वह व्यकक्तिो जोर से हँस पड़ा– ʺ जो व्येक्तिव
समय का भी ध्यारन न रखे, उससे
भला क्याे अपेक्षा की जा सकती हैॽʺ
इतने में वह आ गया। उसकी साँस फूल रही थी।
उसके वस्त्र कीचड़ में सने हुए थे। वह
महर्षि को साष्टां्ग प्रणाम कर एक ओर विनम्र
भाव से खड़ा हो गया। तभी महर्षि से उसे बैठने
का इशारा किया और वह बैठ गया।
महर्षि ही पहले बोले– ʺकहो वत्सा, शायद
तुम्हें कुछ विलंब हो गया है। यह हालत कैसे हुईॽʺ
दूसरे व्यिक्तिह के स्व र में विनय भाव फूटा–
ʺभगवन् वैसे तो मैं समय पर पहुँच ही जाता, कितु
रास्तें में एक बोझ उठाने वाली वृद्ध
महिला की सहायता करने में, एक वृद्ध
गाड़ीवान की गाड़ी का पहिया कीचड से
निकालने में और एक
अंधी वृद्धा को उसकी झोंपड़ी तक पहुँचाने में
विलंब हो गया। मैंने समय पर पहुँचने की फिर
भी चेष्टाक की, विलंब के लिए मैं
क्षमाप्रार्थी हूँ।ʺ
अब महर्षि ने मुस्कुराते हुए पहले आने वाले
व्ययक्तिी की ओर देखा और निर्णयात्मकक स्वंर
में बोले– ʺ वत्सǃ निश्चित ही तुम्हाहरी राह
भी वही थी, जिससे यह आया है। तुम्हें सेवा के
अवसर मिले, पर तुमने उनकी अवहेलना की। बड़े
काम के मोह में तुमने यह न जाना कि छोटे–छोटे
कामों का समायोग ही तो बड़ा काम है।
बड़ा बनने के लिए कभी भी छोटों का तिरस्कार
नहीं किया जाता। जो दूसरे का भार
हलका करने में सहायक हो,
जो किसी को कठिनाइयों से निकलने में
सहायता दे और जो किसी को लक्ष्यज पर पहुँचने
में सहयोग दे, वही बड़ा आदमी है। तुम
अपना निर्णय स्वेयं ही दो वत्स , क्याय तुम
सेवाकार्य में मेरे सहायक बन सकते होॽʺ
खिसियाया हुआ पहला व्यक्ति मौन था। वह
निरूत्तर था, उसके पास कोई जवाब नहीं था।

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